इस समय देश की 5 फीसदी आबादी सोरायसिस की शिकार है। सोरायसिस त्वचा की ऊपरी सतह का चर्म रोग है जो वैसे तो वंशानुगत है लेकिन कई कारणों से भी हो सकता है। आनु्वंशिकता के अलावा इसके लिए पर्यावरण भी एक बड़ा कारण माना जाता है। यह असाध्य बीमारी कभी भी किसी को भी हो सकती है। कई बार इलाज के बाद इसे ठीक हुआ समझ लिया जाता है जबकि यह रह-रहकर सिर उठा लेता है। शीत ऋतु में यह बीमारी प्रमुखता से प्रकट होती है।
सोरायसिस चमड़ी की एक ऐसी बीमारी है जिसके ऊपर मोटी परत जम जाती है। दरअसल चमड़ी की सतही परत का अधिक बनना ही सोरायसिस है। त्वचा पर भारी सोरायसिस की बीमारी सामान्यतः हमारी त्वचा पर लाल रंग की सतह के रूप में उभरकर आती है और स्केल्प (सिर के बालों के पीछे) हाथ-पाँव अथवा हाथ की हथेलियों, पाँव के तलवों, कोहनी, घुटनों और पीठ पर अधिक होती है। 1-2 प्रतिशत जनता में यह रोग पाया जाता है।
क्या है लक्षण:
रोग से ग्रसित (आक्रांत) स्थान की त्वचा चमकविहीन, रुखी-सूखी, फटी हुई और मोटी दिखाई देती है तथा वहाँ खुजली भी चलती है। सोरायसिस के क्रॉनिक और गंभीर होने पर 5 से 40 प्रतिशत रोगियों में जोड़ों का दर्द और सूजन जैसे लक्षण भी पाए जाते हैं एवं कुछ रोगियों के नाखून भी प्रभावित हो जाते हैं और उन पर रोग के चिह्न (पीटिंग) दिखाई देते हैं।
क्यों और किसे होता है सोरायसिस:
सोरायसिस क्यों होता है इसका सीधे-सीधे उत्तर देना कठिन है क्योंकि इसके मल्टीफ्लेक्टोरियल (एकाधिक) कारण हैं। अभी तक हुई खोज (रिसर्च) के अनुसार सोरायसिस की उत्पत्ति के लिए मुख्यतः जेनेटिक प्री-डिस्पोजिशन और एनवायरमेंटल फेक्टर को जवाबदार माना गया है।सोरायसिस हेरिडिटी (वंशानुगत) रोगों की श्रेणी में आने वाली बीमारी है एवं 10 प्रश रोगियों में परिवार के किसी सदस्य को यह रोग रहता है।
किसी भी उम्र में नवजात शिशुओं से लेकर वृद्धों को भी हो सकती है। यह इंफेक्टिव डिसिज (छूत की बीमारी) भी नहीं है। सामान्यतः यह बीमारी 20 से 30 वर्ष की आयु में प्रकट होती है, लेकिन कभी-कभी इस बीमारी के लक्षण क्रॉनिक बीमारियों की तरह देरी से उभरकर आते हैं। सोरायसिस एक बार ठीक हो जाने के बाद कुछ समय पश्चात पुनः उभर कर आ जाता है और कभी-कभी अधिक उग्रता के साथ प्रकट होता है। ग्रीष्मऋतु की अपेक्षा शीतऋतु में इसका प्रकोप अधिक होता है।
रोग होने पर क्या करें:
सोरायसिस होने पर विशेषज्ञ चिकित्सक के बताए अनुसार निर्देशों का पालन करते हुए पर्याप्त उपचार कराएँ ताकि रोग नियंत्रण में रहे। थ्रोट इंफेक्शन से बचें और तनाव रहित रहें, क्योंकि थ्रोट इंफेक्शन और स्ट्रेस सीधे-सीधे सोरायसिस को प्रभावित कर रोग के लक्षणों में वृद्धि करता है। त्वचा को अधिक खुश्क होने से भी बचाएँ ताकि खुजली उत्पन्न न हो। परहेज नाम पर मात्र मदिरा और धूम्रपान का परहेज है क्योंकि ये दोनों ही सीधे सीधे इस व्याधि को बढाते है.
क्या है उपचार:
सोरायसिस के उपचार में बाह्य प्रयोग के लिए एंटिसोरियेटिक क्रीम/ लोशन/ ऑइंटमेंट की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लेकिन जब बाह्योपचार से लाभ न हो तो मुँह से ली जाने वाली एंटीसोरिक और सिमटोमेटिक होम्योपैथिक औषधियों का प्रयोग आवश्यक हो जाता है।
होम्योपैथिक औषधियाँ:
लक्षणानुसार मरक्यूरस सौल, नेट्रम सल्फ, मेडोराइनम, लाईकोपोडियम, सल्फर, सोराइन्म, आर्सेनिक अल्ब्म, ग्रफाइट्स, इत्यादि अत्यंत कारगर होम्योपैथिक दवाएँ हैं।
उपरोक्त दवाये केवल उदहारण के तौर पर दी गयी है .कृपया किसी भी दवा का सेवन बिना परामर्श के ना करे, क्योकि होम्योपैथी में सभी व्यक्तियों की शारीरिक और मानसिक लक्षण के आधार पर अलग -अलग दवा होती है !
सोरायसिस चमड़ी की एक ऐसी बीमारी है जिसके ऊपर मोटी परत जम जाती है। दरअसल चमड़ी की सतही परत का अधिक बनना ही सोरायसिस है। त्वचा पर भारी सोरायसिस की बीमारी सामान्यतः हमारी त्वचा पर लाल रंग की सतह के रूप में उभरकर आती है और स्केल्प (सिर के बालों के पीछे) हाथ-पाँव अथवा हाथ की हथेलियों, पाँव के तलवों, कोहनी, घुटनों और पीठ पर अधिक होती है। 1-2 प्रतिशत जनता में यह रोग पाया जाता है।
क्या है लक्षण:
रोग से ग्रसित (आक्रांत) स्थान की त्वचा चमकविहीन, रुखी-सूखी, फटी हुई और मोटी दिखाई देती है तथा वहाँ खुजली भी चलती है। सोरायसिस के क्रॉनिक और गंभीर होने पर 5 से 40 प्रतिशत रोगियों में जोड़ों का दर्द और सूजन जैसे लक्षण भी पाए जाते हैं एवं कुछ रोगियों के नाखून भी प्रभावित हो जाते हैं और उन पर रोग के चिह्न (पीटिंग) दिखाई देते हैं।
क्यों और किसे होता है सोरायसिस:
सोरायसिस क्यों होता है इसका सीधे-सीधे उत्तर देना कठिन है क्योंकि इसके मल्टीफ्लेक्टोरियल (एकाधिक) कारण हैं। अभी तक हुई खोज (रिसर्च) के अनुसार सोरायसिस की उत्पत्ति के लिए मुख्यतः जेनेटिक प्री-डिस्पोजिशन और एनवायरमेंटल फेक्टर को जवाबदार माना गया है।सोरायसिस हेरिडिटी (वंशानुगत) रोगों की श्रेणी में आने वाली बीमारी है एवं 10 प्रश रोगियों में परिवार के किसी सदस्य को यह रोग रहता है।
किसी भी उम्र में नवजात शिशुओं से लेकर वृद्धों को भी हो सकती है। यह इंफेक्टिव डिसिज (छूत की बीमारी) भी नहीं है। सामान्यतः यह बीमारी 20 से 30 वर्ष की आयु में प्रकट होती है, लेकिन कभी-कभी इस बीमारी के लक्षण क्रॉनिक बीमारियों की तरह देरी से उभरकर आते हैं। सोरायसिस एक बार ठीक हो जाने के बाद कुछ समय पश्चात पुनः उभर कर आ जाता है और कभी-कभी अधिक उग्रता के साथ प्रकट होता है। ग्रीष्मऋतु की अपेक्षा शीतऋतु में इसका प्रकोप अधिक होता है।
रोग होने पर क्या करें:
सोरायसिस होने पर विशेषज्ञ चिकित्सक के बताए अनुसार निर्देशों का पालन करते हुए पर्याप्त उपचार कराएँ ताकि रोग नियंत्रण में रहे। थ्रोट इंफेक्शन से बचें और तनाव रहित रहें, क्योंकि थ्रोट इंफेक्शन और स्ट्रेस सीधे-सीधे सोरायसिस को प्रभावित कर रोग के लक्षणों में वृद्धि करता है। त्वचा को अधिक खुश्क होने से भी बचाएँ ताकि खुजली उत्पन्न न हो। परहेज नाम पर मात्र मदिरा और धूम्रपान का परहेज है क्योंकि ये दोनों ही सीधे सीधे इस व्याधि को बढाते है.
क्या है उपचार:
सोरायसिस के उपचार में बाह्य प्रयोग के लिए एंटिसोरियेटिक क्रीम/ लोशन/ ऑइंटमेंट की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। लेकिन जब बाह्योपचार से लाभ न हो तो मुँह से ली जाने वाली एंटीसोरिक और सिमटोमेटिक होम्योपैथिक औषधियों का प्रयोग आवश्यक हो जाता है।
होम्योपैथिक औषधियाँ:
लक्षणानुसार मरक्यूरस सौल, नेट्रम सल्फ, मेडोराइनम, लाईकोपोडियम, सल्फर, सोराइन्म, आर्सेनिक अल्ब्म, ग्रफाइट्स, इत्यादि अत्यंत कारगर होम्योपैथिक दवाएँ हैं।
उपरोक्त दवाये केवल उदहारण के तौर पर दी गयी है .कृपया किसी भी दवा का सेवन बिना परामर्श के ना करे, क्योकि होम्योपैथी में सभी व्यक्तियों की शारीरिक और मानसिक लक्षण के आधार पर अलग -अलग दवा होती है !
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